Emergency movie review: यह एक फिल्म नहीं बल्कि कसी भी टॉपिक को समझने के लिए एक कम्पलीट पैकेज है। या फिर इसे यूँ समझिये जैसे एग्जाम के समय किसी विषय को लेकर की गई पूरी तैयारी का फटाफट रिवीजन समझ लें जो की कम समय में लेकिन बहुत ही फोकस से की गई मेहनत है। यह फिल्म ‘Emergency’ ऐसी ही है। पहले तो लगा था कि ये जी सिनेमा और कंगना रनौत के द्वारा बनायी हुयी एक ऐसी फिल्म होगी जिसमें बीती सरकारों पर कुछ लांछन लगेंगे, इतिहास के कुछ पन्नों को नए सिरे से लिखने की कोशिश की गयी होगी और एक फिक्स एजेंडे के तहत फिल्म आगे बढ़ेगी।
लेकिन, सबसे बड़ी बात ये है कि इस फिल्म में कंगना रनौत ने ऐसा कुछ भी ऐसा नहीं किया है। और शायद इस फिल्म की रिलीज में देरी की ये भी बड़ी वजह हो सकती है। ऐसे में अगर चुनाव से पहले ये फिल्म रिलीज होती तो शायद कांग्रेस को फायदा पहुंचा सकती थी। इंदिरा गाँधी के बारे में जो कांग्रेसी विस्तार से न जानते हों, उन्हें इस फिल्म को जरूर देखनी चाहिए और देश के हर जागरूक नागरिक को ये फिल्म इसलिए देखनी चाहिए कि इंदिरा गांधी नाम की महिला जो इसी देश में जन्मी, उन्होंने कैसे दुनिया की दिग्गज ताकतों की नाक के नीचे दुनिया के नक्शे पर एक नए देश का नक्शा खींच दिया।

15 अगस्त 1975 और पड़ोसी मुल्क
15 अगस्त 1975 को भारत के पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में ऐसी कौन सी घटना घटी जिसने इंदिरा गांधी को एकदम से भीतर तक झकझोर के रख दिया और उन्ही दिनों भारत में ऐसे क्या हालत बने जिनमें इंदिरा गांधी को लगा कि उनके पूरे परिवार की जान को खतरा हो सकता है? क्या देश में इमरजेंसी (Emergency) लगाने की वजह इंदिरा का चुनाव निरस्त होना ही थी या फिर इसके पीछे कुछ और भी कारक काम कर रहे थे? क्या उनके बेटे संजय गाँधी ने उन्हें ऐसा करने के लिए उकसाया? और क्या इसी वजह से जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं तो संजय गांधी का अपनी मां से भी मिलना मुश्किल हो गया था?
इस फील में ऐसे कई सवाल हैं। जैसे 12 साल की इंदु के अपने दादा से अपनी बुआ को घर से निकालने की फरियाद से लेकर के अपनी आखिरी रैली में ‘खून का एक एक कतरा देश के काम आने तक’ की इंदिरा गांधी तक की ये कहानी है। यह एक अच्छी कहानी है।

आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को वापस लाएंगे
कंगना रनौत की इस फिल्म ‘इमरजेंसी’ में एक नारा लगता है ‘आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को वापस लाएंगे’। और ये उस देश में लगा नारा है जिसमें आज के समय में मुफ्त का गेंहू और चावल देश की आधे से ज्यादा आबादी को बांटा जा रहा है। इस फिल्म ‘इमरजेंसी’ में राजनीति का हर वो पहलू दिखाया गया है जिस पर अमल करके बाद के तमाम नेताओं ने अखबारों और मीडिया में खुद को पेश करने के तरीके सीखे हैं।
हाथी की सवारी करके इंदिरा का जंगल में बसे गांव में पहुंच जाने वाला मीडिया इवेंट जानबूझकर बनाया गया या फिर ये एक स्वत: प्रेरित घटना थी? फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ रात्रि भोज करते समय परोसे गए केक के टुकड़े को पैक कराकर ले जाने की बात कहने वाली इंदिरा की तीक्ष्ण बुद्धि को नजरअंदाज कर उन्हें ‘गुड़िया’ कहकर पुकारने वाले जे पी नारायण से मिलने पहुंची इंदिरा और फिर उसके बाद परिवर्तित देश की राजनीति की अंतर्धारा ऐसी है कि, जो लोग देश की सियासत की जरा सी भी समझ रखने वाले हैं उनके रोएं ये फिल्म देखते समय कई बार खड़े हो सकते हैं।
कंगना रनौत से इस फिल्म को लेकर बहुत अधिक उम्मीदें शायद ही किसी ने रखी हों। लेकिन इस फिल्म को देखने वाले बीजेपी के नेता भी फिल्म के उसी हिस्से की बात ज्यादा कर रहे हैं, जहां इमरजेंसी के दौरान हुए अत्याचारों की बात है, लेकिन ये हिस्सा फिल्म में बस कुछ मिनट का ही है। इस फिल्म का नाम अगर ‘इमरजेंसी’ की बजाय ‘इंदिरा’ होता तो शायद कंगना रनौत के इस फिल्म की इतनी चर्चा नहीं होती। यह फिल्म न तो ये इंदिरा का एक एकदम से गुणगान करती है और न ही उनकी आंख मूंदकर उनकी आलोचना। और, इसी एक पैमाने पर खरी उतरकर ये फिल्म न सिर्फ दर्शनीय और प्रशंसनीय बन जाती है।